शनिवार, 2 जुलाई 2011

अइयो रब्बा कभी किताब न छपवाना

बुधवार, १८ मई २०११



वैसे तो अपनी किताब छपवाने का सपना मैं तब से देख रहा हूँ जब मैं राम-रहीम पॉकेट बुक पढ़ता था. बाद में गुलशन नन्दा पर ट्रांसफर हुआ तब भी अपना स्वयं का रोमांटिक नॉवेल मन में कई बार लिखा और उससे कहीं ज्यादा बार छपवाया. कुछ समय बाद रोमांस का तड़का जेम्स हेडली चेइज, अगाथा क्रिस्टी और एलिएस्टर मैक्लीन में बदला तब तो और भी न जाने कितने जासूसी नॉवेल मन ही मन में लिख मारे और छपवा भी डाले और बड़े-बड़ों से लोकार्पण भी करवा डाले. इस बीच कभी कभार जोर मारा तो कविता, तुकबंदियों और व्यंज़लों का संग्रह भी आ गया.
मगर, वास्तविक में, प्रिंट में छपवाने के मंसूबे तो मंसूबे ही रह गए थे. बहुत पहले एक स्थापित लेखक की एक और कृति बढ़िया प्रकाशन संस्थान से छपी और लोकार्पित हुई. एक समीक्षक महोदय ने प्राइवेट चर्चा में कहा – सब सेटिंग का खेल है. देखना ये किसी कोर्स में लगवाने की जुगत कर लेंगे. वो किताब कोर्स में लगी या नहीं, मगर किताब छपवाने में भी सेटिंग होती है ये पहली बार पता चला.
एक बार एक कहानीकार मित्र महोदय चहकते हुए मिल गए. उनके हाथों में उनका सद्यःप्रकाशित कहानी संग्रह था. एक प्रति मुझे भेंट करते हुए गदगद हुए जा रहे थे. मैंने बधाई दी और कहा कि अंततः आपके संग्रह को एक प्रकाशक मिल ही गया. तो थोड़े रुआंसे हुए और बोले मिल क्या गए, मजबूरी में खोजे गए. संग्रह की 100 प्रतियों को बड़ी मुश्किल से नेगोशिएट कर पूरे पंद्रह हजार में छपवाया है.
मेरे अपने संग्रह के छपने के मंसूबे पर पंद्रह हजार का चोट पड़ गया. तो, हिंदी किताबें ऐसे भी छपवाई जाती हैं? एक अति प्रकाशित लेखक मित्र से इस बाबत जाँच पड़ताल की तो उन्होंने कहा – ऐसे भी का क्या मतलब? हिंदी में ऐसे ही किताबें छपवाई जाती हैं.
अपनी हार्ड अर्न्ड मनी में से जोड़-तोड़ कर, पेट काट कर, बचत कर और पत्नी की चंद साड़ियाँ बचाकर मैंने जैसे तैसे पंद्रह हजार का जुगाड़ कर ही लिया. अब तो मेरा भी व्यंज़लों का संग्रह आने ही वाला था. मैंने प्रकाशक तय कर लिया, कवर तय कर लिया, लेआउट तय कर लिया, व्यंजलों की संख्या तय कर ली, मूल्य – दिखावे के लिए ही सही – तय कर लिया, किन मित्रों को किताबें भेंट स्वरूप देनी है और किन्हें समीक्षार्थ देनी है यह तय कर लिया. बस, संग्रह के लिए व्यंज़लों को चुनने का काम रह गया था, तो वो कौन बड़ी बात थी. दस-पंद्रह मिनट में ही ये काम हो जाता. बड़ी बात थी, संग्रह के लिए दो-शब्द और भूमिका लिखवाना. तो इसके लिए कुछ नामचीन, स्थापित मठाधीश लेखकों से वार्तालाप जारी था.
अंततः यह सब भी हो गया और मेरी किताब, मेरी अपनी किताब, मेरी अपनी लिखी हुई किताब छपने के लिए चली गई. अपना व्यंजल संग्रह छपने देने के बाद मैं इत्मीनान से ये देखने लग गया कि आजकल के समीक्षक आजकल प्रकाशित हो रही किताबों की समीक्षा किस तरह कर रहे हैं और क्या खा-पीकर कर रहे हैं.
एक हालिया प्रकाशित किताब की चर्चित समीक्षा पर निगाह गई. यूँ तो आमतौर पर समीक्षकों का काम कवर, कवर पेज पर राइटर और अंदर बड़े लेखक की भूमिका में से माल उड़ाकर धाँसू समीक्षा लिख मारना होता है, मगर यहाँ पर समीक्षक तो लगता है कि पिछले कई जन्म जन्मांतरों की दुश्मनी निकालने पर आमादा प्रतीत दीखता था. उसने हंस के अभिनव ओझा स्टाइल में किताब की फ़ुलस्टॉप, कॉमा, कोलन, डेश, इन्वर्टेड कॉमा में ही दोष नहीं निकाले बल्कि अक्षरों और वाक्यों के अर्थों के अनर्थ भी निकाल डाले और किताब को इतना कूड़ा घोषित कर दिया कि किताब छपाई को पेड़ों और काग़ज़ की बर्बादी और पर्यावरण पर दुष्प्रभाव भी बता दिया. लगता है कि समीक्षक महोदय का सदियों से विज्ञापनों की सामग्री से अटे पड़े टाइम्स, वॉग और कॉस्मोपॉलिटन जैसे अख़बारों-पत्रिकाओं का साबिका नहीं पड़ा था.
बहरहाल, मुझे अपने व्यंज़ल संग्रह की धज्जियाँ उड़ती दिखाई दीं. मैं वापस प्रकाशक के पास भागा. मैंने प्रकाशक को बताया कि मैं अपनी किताब किसी सूरत प्रकाशित नहीं करवाना चाहता. प्रकाशक बोला कि भइए, अभी कल ही तो आप खुशी खुशी आए थे, और आज क्या हो गया? मैंने प्रकाशक से कहा – भइए, आप मेरी किताब छाप दोगे तो वनों का विनाश हो जाएगा. पर्यावरण का कबाड़ा हो जाएगा. नेट पर फ़ॉन्ट साइज और पृष्ठ का रूप रंग तो प्रयोक्ता अपने हिसाब से सेट कर लेता है. मेरी किताब में यदि किसी समीक्षक को फ़ॉन्ट साइज नहीं जमी तो वो तो उसे पूरा कूड़ा ही बता देगा. मुझे नहीं छपवानी अपनी किताब. प्रकाशक अड़ गया. बोला किताब भले न छपे, पैसे एक घेला वापस नहीं मिलेगा. मैं सहर्ष तैयार हो गया. मैं सस्ते में छूट जो गया था!
भगवान ने खूब बचाया. ऐसे समीक्षकों से!! भगवान, तेरा लाख लाख शुक्रिया. सही समय सद्बुद्धि दे दी थी.

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